मुहम्मद शहरुल वारिस
रमज़ान शरीफ के महीने का आखरी अशरा चल रहा है जिसको जहन्नम से आज़ादी का अशरा कहा जाता है और इसी अशरे मैं शबे कद्र भी हैं जो के हज़ार महीनों से अफ़ज़ल है
रमज़ान शरीफ मैं दो वक्त ऐसे हैं जिनमें रोज़ेदार जो दुआ करता है अल्लाह तआला रद नहीं करता
इन दोनो ही वक्तों मैं हमें फलस्तीन के मज़लूम मुसलमानों के लिए कसरत से दुआ करनी है इस वक्त उन पर ज़ुल्मो तशद्दुद की आंधियां चल रही हैं ज़ालिम सारी हदें पार कर रहा है
हम लोग जब टीवी या मोबाइल मैं देखते हैं तो कलेजा दहल जाता है आंखें भर आती हैं लेकिन जो लोग ये ज़ुल्म सह रहे हैं उन पर क्या गुज़र रही होगी
जब भी आप सेहरी या इफ्तारी का दस्तरख्वान सजाएं तो एक बार फलस्तीन के मजलूमों के बारे मैं भी सोच कर आंसू बहालें शायद यही हमारी निजात का ज़रिया बन जाए
हमारे फिलिस्तीनी माजलूम भाई कैसे दाने दाने को तरस रहे हैं सैकड़ों बच्चों की मौत सिर्फ भूख की वजह हो गई उनके घर तोड़ दिए मां बाप छिन गए भाई बहन छिन गए सब कुछ लुट गया कुछ भी नहीं बचा लेकिन फिर भी उनकी ज़बान पर ला इलाहा इलल्लाह की सदाये जारी हैं
मैं हिंद के मुसलमानों से गुज़ारिश करता हूं के अपने गुनाहों से तौबा कर अल्लाह की तरफ पलटें वरना वो वक्त दूर नही के ये ज़ुल्मो ज़ियादती हम पर भी होगी चाहे किसी भी शक्ल में हो
संवाददाता मौलाना कुमेल मिया क़ादरी